पुस्तक का नाम |
अग्नि की उड़ान
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पुस्तक का
लेखक |
डॉ ए पी जे
अब्दुल कलाम एवं अरुण कुमार तिवारी |
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प्रकाशन |
प्रभात
प्रकाशन |
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पृष्ठ |
191 |
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पुस्तक की
कीमत |
Rs. 247/- |
अगर
आप एपीजे अब्दुल कलाम के बारे में और ज़्यादा जानना चाहते हैं, तो ये बुक आपके लिए है. वो एक मेहनती स्टूडेंट, समर्पित मिसाइल साइंटिस्ट और बहुत पसंद किये जाने वाले लीडर थे। ये कहानी आपको, तमिलनाडु में उनके बचपन से लेकर DRDO
और ISRO में उनके इम्पोर्टेन्ट
कंट्रीब्यूशन तक की जर्नी के बारे में बताएगी । इस बुक में आप एरोस्पेस के बारे
में कई बातें जानेंगे ।आप इंडिया के मिसाइल मैन कहे
जाने वाले एपीजे से लाइफ के इम्पोर्टेन्ट लेसंस भी सीखेंगे ।
अग्नि की उड़ान (wings of fire) : यह बुक किसे पढनी चाहिये ।
स्टूडेंट्स, टीचर्स,
जो साइंटिस्ट बनना चाहते हैं, जो सिविल
सर्वेंट बनना चाहते हैं ।
अग्नि की उड़ान (wings of fire) आँथर के बारे में -:
एपीजे अब्दुल कलाम मिसाइल
साइंटिस्ट और भारत के पूर्व प्रेजिडेंट हैं । उन्हें सब प्यार से मिसाइल मैन कहते
हैं । अरुण तिवारी एक प्रोफेसर और मिसाइल साइंटिस्ट हैं । उन्होंने
डीआरडीओ में कलाम के साथ काम किया है । साथ में, उन्होंने
5 बुक्स लिखीं हैं ।
अग्नि की उड़ान के लेखक ए पी जे अब्दुल कलाम के बचपन के बारे
में -:
ए. पी. जे. अब्दुल कलाम कहते
है मै एक गहरा कुंआ हूँ इस ज़मीन पर बेशुमार लड़के लड़कियों के लिए कि उनकी प्यास
बुझाता रहूँ । उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़र्रे ज़र्रे पर बरसती है जैसे कुंवा सबकी
प्यास बुझाता है । इतनी सी कहानी है मेरी, जैनुलब्दीन और
आशिंअम्मा के बेटे की कहानी । उस लड़के की कहानी जो अखबारे बेचकर अपने भाई की मदद
करता था । उस शागिर्द की कहानी जिसकी परवरिश शिव सुब्र्यमानियम अय्यर और आना
दोरायिसोलोमन ने की । उस विद्यार्थी की कहानी जिसे पेंडुले मास्टर ने तालीम दी,
एम्.जी.के. मेनन और प्रोफेसर साराभाई ने इंजीनियर की पहचान दी ।
जो नाकामियों और मुश्किलों में पलकर सायिन्स्दान बना और उस रहनुमा की कहानी जिसके
साथ चलने वाले बेशुमार काबिल और हुनरमंद लोगों की टीम थी ।
मेरी कहानी मेरे साथ ख़त्म हो जायेगी क्योंकि दुनियावी मायनों में
मेरे पास कोई पूँजी नहीं है, मैंने कुछ हासिल नहीं किया,
जमा नहीं किया, मेरे पास कुछ नहीं और
कोई नहीं है मेरा ना बेटा, ना बेटी ना परिवार । मै दुसरो
के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता लेकिन शायद कुछ पढने वालो को प्रेणना मिले कि अंतिम
सुख रूह और आत्मा की तस्कीन है, खुदा की रहमत है, उनकी वरासत है । मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा
फ़कीर और मेरे वालिद जेनालुब्दीन का खानदानी सिलसिला अब्दुल कलाम पर ख़त्म हो जाएगा
लेकीन खुदा की रहमत कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि वो अमर है ।
मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलो को भी तमिल की आम जबान में
बयान कर लिया करते थे. एक बार मुझसे कहा था” जब आफत आये तो आफत की
वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किल हमेशा खुद को परखने का
मौका देती है’ ।
मैंने हमेशा अपनी साईंस और
टेक्नोलोजी में अब्बा के उसुलूँ पर चलने की कोशिश की है । मै इस बात पर यकीन रखता
हूँ की हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है जो हमें
मुसीबत, मायूसी और नाकामियों से निकाल कर सच्चाई के मुकाम
तक पहुचाती है ।
मै करीब छेह बरस का था जब
अब्बा ने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया जिसमे वो यात्रियों को रामेश्वरम
से धनुषकोटि का दौरा करा सके । ले जाए और वापस ले आये । एक और हमारे रिश्तेदार के
साथ अहमद जलालुदीन, बाद में उनका निकाह मेरी आपा जोहरा के साथ हुआ । अहमद जलालुदीन हालाँकि
मुझसे पंद्रह साल बड़े थे फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गयी थी । जलालुदीन ज्यादा
पढ़ लिख नहीं सके उनके घर की हालत की वजह से लेकिन मै जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ,
उन दिनों हमारे इलाके में सिर्फ एक वही शख्स था जो अंग्रेजी
लिखना जानता था ।
और एक शख्स जिसने बचपन में
मुझे बहुत मुद्दफिक किया वो मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमसुदीन और
उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था. हर
सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुचता था. सन 1939
में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई, द सेकंड
वर्ड वार, उस वक्त मै आठ साल का था । एक इमरजेंसी जैसे
हालात पैदा हो गए थे. सिर्फ पहली दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर ट्रेन का
रुकना केंसिल कर दिया गया और अखबारों का गठ्ठा अब रामेश्वरम और धनुषकोटी के बीच से
गुज़रनेवाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता । शमसुदीन को मजबूरन एक मददगार
रखना पड़ा जो अखबारों के गठ्ठे सड़क से जमा कर सके, वो मौका
मुझे मिला और शमसुदीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना ।
सन1950 में
मै इंटर मीडिएट पढने के लिए सेंट जोसेफ कोलेज त्रिची में दाखिल हो गया. बी.एस.सी
पास करने के बाद ही जान पाया कि फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट नहीं था ।
अग्नि की उड़ान के लेखक ए पी जे अब्दुल कलाम के इंजीनियरिंग
के दौरान -:
किसी तरह मै एम आई टी यानी
मद्रास इंजीयरिंग और टेक्नोलोजी के उमीद्वारो की लिस्ट में तो आ गया लेकिन उसका
दाखिला बहुत महंगा था कम से कम एक हज़ार रुपयों की ज़रुरत थी और मेरे अब्बा के पास
इतने पैसे नहीं थे । उस वक्त मेरी अक्का, मेरी आपा जोहरा ने अपने
सोने के कड़े और चेन बेचकर मेरी फीस का इतेजाम किया ।
मेकेनिकल इंजीयरिंग में दाखिले से पहले ही मैंने उनसे सलाह ली
थी। उन्होंने मुझे समझाया था कि” मुस्तकबिल का फैसला करने
से पहले मुस्तकबिल की मुमकिनियत के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि सोचना चाहिए
एक अच्छी बुनियाद के लिए और अपने रुझान और रिश्तियात के बारे में कि उनमे कितनी
शिद्दत है, एप्टीटयुड और इन्सिपिरेशन में कितनी
इन्टेन्सिटी है । मै खुद भी होने वाले इंजीनियर स्टूडेंट्स से ये कहना चाहता हूँ
कि जब वे अपने स्पेशिलाइजेशन का चुनाव करे तो देखना होगा कि उनमे कितना शौक है
कितना उत्साह और लगन है उस शौक में जाने के लिए ।
एम् आई टी से मै बेंगलोर के
हिन्दुस्तान एरोनोटीकल लिमिटेड में बतौर ट्रेनी दाखिल हो गया । एचएएल से जब मै
एरोनोटीकल इंजीयरिंग में ग्रेजुएट बनकर निकला तो जिंदगी ने दो मौके मेरे सामने खड़े
कर दिए । एक मौका था एयरफोर्स का दूसरा मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स में डायरेक्टरेट ऑफ़
टेक्नीकल डेवलपमेंट और प्रोडक्शन का । मैंने दोनों में अर्जी भेज दी और बावक्त
दोनों से इंटरव्यू का बुलावा आ गया. एयरफोर्स के लिए मुझे देहरादून बुलाया गया था
और डिफेन्स के लिए दिल्ली । डिफेन्स मिनिस्ट्री का इंटरव्यू दिया. इंटरव्यू अच्छा
हुआ था वहां से मै देहरादून गया एयरफोर्स सिलेक्शन बोर्ड के इंटरव्यू के लिए ।
पच्चीस उमीद्वारो में मै नवें नंबर पर आया. मेरा दिल बैठ गया ।
बहुत मायूस हुआ और कई दिन तक अफ़सोस रहा कि एयरफोर्स में जाने का
मौका मेरे हाथ से निकल गया. मै ऋषिकेश चला गया, फिर कुछ
दिन बाद मै दिल्ली लौट आया ।
डिफेन्स में अपने इंटरव्यू
का नतीजा जवाब में मुझे अपोइंटमेंट लैटर थमा दिया गया. और अगले दिन से सीनियर
साइंटिफिक अस्सिस्टेंट मुकर्रर कर दिया गया ढाई सौ रूपये के महीना तनख्वाह पर ।
तीन साल गुजर गए । उन्ही दिनों बंगलोर में एरोनौटिकल डेवलपमेंट एश्टेबिलिश्मेंटADE का नया
महकमा खुला और मुझे वहां पोस्ट कर दिया गया ।
मै मुंबई चला गया इंटरव्यू देने । मेरा इंटरव्यू लेने वालो में
विक्रम साराभाई, एम्.जी.के मेनन के अलावा मिस्टर सराफ थे
जो उस वक्त एटॉमिक एनर्जी कमीशन के डेपुटी सेक्रेटरी के ओहदे पर थे । अगले ही दिन
मुझे खबर मिली कि मै चुन लिया गया । मुझे इन्कोस्पर में राकेट इंजीनियर की हैसियत
से शामिल कर लिया गया था । सन 1962 में देरेना हिस्से में
कहीं इन्कोस्पर ने थुम्बा में इक्वेटोरियल राकेट लांच स्टेशन बनाने का फैसला किया
। थुम्बा केरल में त्रिवेंद्रम से परे दूर दराज़ के एक उंघते से गाँव का नाम है ।
उसके फ़ौरन बाद ही मुझे छेह महीने के लिए अमेरिका भेज दिया गया । नासा में राकेट
लौन्चिंग की ट्रेनिंग के लिए । जाने से पहले मै थोडा सा वक्त निकाल कर रामेश्वरम
गया । मेरे अब्बा मेरी इस कामयाबी के लिए बहुत खुश हुए ।
मै जैसे ही नासा से
लौटा फ़ौरन बाद ही हिन्दुस्तान का पहला राकेट लांच वाकया हुआ । 21नवम्बर 1963, वो साउन्डिंग राकेट था, नाम अपाचे नाइकी । नाइकी अपाचे की कामयाबी के बाद प्रो. साराभाई ने अपनी आरज़ू, अपने ख्वाब का इज़हार
किया । एक इंडियन सेटेलाईट लांच व्हीकल ISLV का सपना ।
हिन्दुस्तानी राकेट का सपना 20वी सदी का ख्वाब भी कहा जा
सकता है ।
1799 में तिरुनेलवेली की जंग
के बाद वो रॉकेट्स विलिंयम कांगेरी ने इंग्लैंड भिजवा दिए जांच पड़ताल के लिए ।
उसकी तकनीक समझने के लिए जिसे आज की साइंस जुबांन में हम रिवर्स इंजीयरिंग कहते है
।थुम्बा में दो राकेट सहज पके और कामयाब हुए एक रोहिनी और दूसरा मेनिका ।
1990 के रिपब्लिक डे पर देश
ने अग्नि व् मिसाईल प्रोग्राम की कामयाबी का जश्न मनाया | मुझे पद्म विभूषण से नवाज़ा गया और डा. अरुणाचलम को भी ।
अग्नि की उड़ान के लेखक ए पी जे अब्दुल कलाम अपने अंतिम
दिनों में -:
10 x12 का एक कमरा किताबो से
भरा हुआ और कुछ ज़रुरत का फर्नीचर जो किराए पर लिया था । मेरे ख्याल से मेरे वतन के
नौजवानों को एक साफ़ नज़रिए और एक दिशा की ज़रुरत है तभी ये इरादा किया कि उन तमाम
लोगो का जिक्र करूँ जिनकी बदौलत मै ये बन सका जो मै हूँ | मकसद ये नहीं था कि मै बड़े बड़े लोगो के नाम लूँ बल्कि ये कि कोई भी
शख्स कितना भी छोटा क्यों ना हो उसे हौसला नहीं छोड़ना चाहिए |
मसले, मुश्किलें
जिंदगी का हिस्सा है और तकलीफे कामयाबी की सच्चाई | जैसा
कहा है किसी ने कि” खुदा ने ये वादा नहीं किया कि आसमान
हमेशा नीला ही रहेगा, जिंदगी भर फूलों से भरी राहे ही
मिलेंगी, खुदा ने ये वादा नहीं किया कि सूरज है तो बादल
नहीं होंगे, ख़ुशी है तो गम नहीं,सुकून
है तो दर्द नहीं होगा | मुझे ऐसा कोई गुमान नहीं कि मेरी
जिंदगी सबके लिए एक मिसाल बने मगर ये हो सकता है कि कोई मायूस बच्चा किसी गुमनाम
सी जगह पर जो समाज के किसी माजूर से हिस्से से ताल्लुक रखता हो, ये पढ़े और उसे चैन मिले, ये पढ़े और उसकी
उम्मीद रोशन हो जाए | हो सकता है कि ये कुछ बच्चो को
नाउम्मीदी से बाहर ले आये और जिसे वो मजबूरी समझते है वो मजबूरी ना लगे |उन्हें यकीन रहे कि वो जहाँ भी है, खुदा उनके
साथ है | काश हर हिन्दुस्तानी के दिल में जलती हुई लौ को
पर लग जाए और उस लौ की परवाज़ से सारा आसमाँ रोशन हो जाए |